कहानी -उस दिन के बाद मैंने हाथ नहीं फैलाये- Hindi story. Emotional Story In Hindi.


एक Emotional Hindi kahani जिसमें एक लड़की गरीबी, अपमान और संघर्ष से लड़कर खुद को मजबूत बनाती है। रिश्तेदार के घर से ठुकराए जाने के बाद किए गए उसके संकल्प और मेहनत ने उसे एक सफल दुकान मालिक बनाया। यह दिल छू लेने वाली स्ट्रगल Motivational हिंदी कहानी जरूर पढ़ें।


मैंने हाथ फैलाना बंद कर दिया. हिन्दी कहानी / Hindi story



कहानी -उस दिन के बाद मैंने हाथ नहीं फैलाये- Hindi story. Emotional Story In Hindi.


जिंदगी में इंसान को आगे बढ़ाने वाली वजहें अक्सर बड़ी नहीं होतीं—कभी-कभी कोई एक घटना, एक अपमान, एक चुभन, पूरे जीवन की दिशा बदल देती है। मेरे जीवन में भी एक ऐसा ही पल आया था, जिसने मुझे जड़ से हिला दिया, मगर उसी ने मुझे नई जड़ें भी दीं—मजबूत, अटूट और गहरी।


मैं तब बहुत छोटी थी… बस इतनी कि दुनिया को आधा समझती थी और दर्द को पूरा।

मेरे पिताजी हमें छोड़कर जा चुके थे। क्यों गए? कहाँ गए? आज तक ठीक से नहीं जानती। माँ कभी खुलकर बताती नहीं थी। शायद इसलिए कि जितनी चोट उन्हें लगी थी, उतनी ही हमें भी दिखाने से वो डरती थीं। दो बेटियाँ… अकेली माँ… और जिंदगी का हर दिन एक नया सवाल।


हमारा घर बहुत छोटा था, लेकिन माँ का हौसला बड़ा। पर हिम्मत का भी क्या—वो भी कभी-कभी टूट ही जाती है।



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खाने को नहीं था… और उस दिन सब बदल गया

एक दिन हमारे घर में खाने को कुछ नहीं था। न चूल्हा जला था, न उम्मीद बची थी। माँ ने बहुत सोचा, फिर शर्म और मजबूरी के बीच कई मिनटों तक लड़ने के बाद एक रिश्तेदार के घर जाने का फैसला किया।


मैं माँ के साथ चुपचाप चलती रही। रास्ते में माँ बार-बार कहती:

“बस थोड़े दिन की बात है… कुछ न कुछ ठीक हो जाएगा।”


मुझे समझ नहीं आता था कि कितना ठीक होगा, कब ठीक होगा… पर हाँ, यह जरूर समझ आ रहा था कि माँ किसी भारी मन से जा रही है।


हम दरवाज़े पर पहुँचे। माँ ने धीरे से दस्तक दी।

अंदर से आवाज़ आई—

“कौन?”


माँ बोली—

“मैं हूँ… अगर घर में हो तो जरा…”


दरवाज़ा थोड़ा सा खुला। रिश्तेदार ने हमें सिर से पांव तक ऐसे देखा जैसे कोई भीख माँगने वाला दरवाज़े पर खड़ा हो।

चेहरे पर न अपनापन… न दया… बस चुभन भरी नज़रें।


उन्होंने कहा—

“अभी मत आओ घर में मेहमान हैं… अच्छा नहीं लगता। जाओ… बाद में आना।”

माँ ने कुछ कहने की कोशिश की, पर उन्होंने हाथ उठाकर रोक दिया। वो अंदर गई और हमारे लिए कुछ जरा सा थैली में भर कर लेकर आ गई।

“ये लो थोड़ा सा… और जाओ, अभी अंदर नहीं आना।”


हमारे हाथ में खाने का एक छोटा डिब्बा रख दिया गया—मानो एहसान नहीं, कोई ताना पकड़ा दिया हो। माँ को वो अपमान का घूंट पीकर वो खाने का डिब्बा ले लिया। 


उसी पल, मेरी पूरी दुनिया बदल गई।


मुझे लगा जैसे किसी ने मेरी आत्मा को झकझोर दिया हो।

जैसे हम इंसान नहीं… कोई बोझ हों।

जैसे मदद देना नहीं, हमें नीचा दिखाना आसान हो।


हम चुपचाप घर लौट रहे थे। वो खाना मेरी माँ ने मुझे और मेरी बहन को दिया बहन ने वो खाना खाया, माँ ने मुझसे कहा की खाना खा ले बेटा क्या सोच रही है। मुझे भूख लगी थी पर उस समय मेरी भूख ना जाने कहा दब गई.


मैंने माँ का हाथ पकड़ा और कहा—

“अब हम कभी किसी से कुछ भी नहीं माँगेंगे। कभी नहीं।”


माँ मुस्कुराईं। उन्हें लगा मैं बच्ची हूँ, जो गुस्से में कुछ भी बोल देती है।

पर उन्हें नहीं पता था—वो दिन मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा वादा था।


उस रात मुझे नींद नहीं आई।

मैंने आसमान को देखते हुए एक ही बात दोहराई—

“मुझे किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना।

चाहे कुछ भी हो जाए।”


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संघर्ष शुरू हुआ – और यह आसान नहीं था


अगले ही दिन मैंने घर से बाहर निकलकर पहली बार सब्जियाँ बेचना शुरू किया।

लोग क्या सोचेंगे?

किसे फर्क पड़ता!

मुझे अपने वादे की चिंता थी।


बरसात में भीगते हुए, धूप में जलते हुए, आवाज़ लगाती थी।

“भाजी ले लो… ताज़ी भाजी…”


कई लोग हँस देते,

कई मोल-भाव करते,

कई अनदेखा कर देते…


पर मैं टूटती नहीं थी।

मैंने तय किया था, तो रास्ता खुद बनाना था।


धीरे-धीरे मैंने काम बढ़ाना शुरू किया।

दूर-दूर जाकर घरों में काम किया—झाड़ू-पोंछा, बर्तन, कपड़े… जो मिला, किया।

मैंने सिलाई सीखने की सोची।

कई जगह जाकर पूछा—

“सिखाओगी?”

किसी ने कहा—“समय नहीं है।”

किसी ने कहा—“सीखकर क्या करोगी?”

किसी ने कहा—“इससे कुछ नहीं होता।”


लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी।

आखिरकार एक आंटी तैयार हुईं, जिन्होंने मुझे सिलाई सिखाई।

पहली बार मशीन पर पैर रखा, तो ऐसा लगा जैसे मैं अपनी किस्मत खुद चला रही हूँ।


दिन-रात अभ्यास किया।

उंगली सूई से छिल जाती, हाथ दुख जाते, आँखें जलतीं… लेकिन मैं रुकती नहीं थी।


फिर धीरे-धीरे मुझे रास्ता मिल गया


सिलाई से कमाई शुरू हुई।

पहले ब्लाउज सीए, फिर सलवार-सूट, फिर पिको-फॉल।

लोगों ने मेरा काम पसंद करना शुरू किया।


पूछते—“कहाँ से सीखा?”

मैं हँसकर कहती— “जहाँ जिंदगी ने सिखाया।”


मेहनत बढ़ती रही, ग्राहक बढ़ते रहे।

फिर मैंने छोटे स्तर पर कपड़े लाना शुरू किया—बच्चों के कपड़े, लेडीज सूट, दो–चार साड़ियाँ।


कभी दूसरों के घर जाकर सिलाई करती, कभी अपनी झोपड़ी में मशीन रखकर।

और एक दिन ऐसा आया जब मेरे पास इतना सामान था, इतनी कमाई थी कि मैंने सोचा—

“अब अपनी दुकान होनी चाहिए।”


आज मेरी खुद की बड़ी दुकान है

मैंने अपनी पूरी बचत जोड़कर एक छोटी दुकान ली।

पहले दिन दुकान खोलते समय मेरी आँखों में आँसू थे।

पर वो दुख के नहीं—जीत के आँसू थे।


धीरे-धीरे दुकान बड़ी होती गई।कस्टमर बढ़े।

स्टाफ भी रखा।

आज मेरे पास एक बड़ी कपड़ों की दुकान है,

जहाँ हर तरह की साड़ियाँ, सूट, दुपट्टे, बच्चों के कपड़े—सब कुछ है।


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मैंने यह सब किसी की सहानुभूति से नहीं पाया।मेहनत से पाया है।और आज जब लोग कहते हैं—

“तुमने यह कैसे किया?”

तो मैं मुस्कुराकर जवाब देती हूँ—

“किसी एक दिन… किसी ने मुझे नीचे दिखाया था।”

मुझे घमंड नहीं है। मैं किसी को छोटा नहीं समझती।

लेकिन अब मैं किसी को भी खुद को नीचा दिखाने नहीं देती।


क्योंकि गरीबी एक परिस्थिति है—कमी नहीं।

कमी होती है हिम्मत की, हौसले की, और कभी-कभी…

बस एक चिंगारी की।

मेरी चिंगारी उस दिन जली थी—

जब हमें दरवाज़े से लौटा दिया गया था।


और आज वही चिंगारी मेरी उड़ान का आसमान है।



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